Tuesday, October 4, 2011

पिपासा अन्तर की

तप रहा सूरज गगन में, धरती सारी जल रहीl
दूर तडफे मेघ दर्शक, निकट आ सकता नहीं ll

सूर्य जलता जल रहा,सागर से बूंदें आ रही l
जल रहे सारे यहाँ पर,क्यों जल रहे पता नहीं ll

सोच धरती जीव कर्मा, विचारों की हवा रही l
धरती जलती जीव जलता, हवा में शीतलता नहीं ll

सागर है मन, मेघ इंसान, दोनों की दूरी बढ़ रही l
बढ़ रहा अभिमान सूरज, प्रेम की बूंदें नहीं ll

सत्संग का वृक्ष ढूंढे "ह्रदय", पिपासा अन्तर की बढ़ रही l
ख़ुद को खो कर, ख़ुद को है पाना, बढ़ रहा अब तम नहीं ll

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