Tuesday, October 4, 2011

दर्पण की क्या बात कहें
दर्पण को सच की बिमारी है
स्वस्थ रहने की खात्तिर मानव
कानों ढ़ेरी मारी है

पैदा हुआ यूँ रिश्वत दे कर
जब अस्पताल में लाइन लगी
दर्पण के एहसास से पहले
रिश्वत की ही साँस चली

स्कूल और कालेज में फिर
पढाई पैसे के तौल तुली
नौकरी और शादी की खात्तिर
नोटों की ऊँची बोली लगी

नया दौर है नए संकल्प हैं
नई परम्पराओं में हौड लगी
"
ह्रदय" धन धन पैसा का युग
पग पग मानव की मण्डी लगी





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