Tuesday, October 4, 2011

जन जन की आत्मा सो रही है

जन जन की आत्मा सो रही है
सो रहा चिंतन कहीं 
उठ मनु के पौरुष उठ तू
तुझे ढूढ़ रहा है वक़्त कहीं 

ज्ञान है अक्षर का केवल 
मर्म की पर लौ नहीं 
उद्यम नहीं आशा नहीं है
है रक्त में तेज़ी नहीं 

मन वचन कर्मों में अंतर 
अंतर की ही खोज नहीं
लौ भी है, उजियारा भी है
अंधेरों की है पर सूझ नहीं

पा के जीवन खो के सांसें 
प्यासे को इक बूंद नहीं
"ह्रदय" बढ़ा ले कदमों को जब
है मंजिल तेरी दूर नहीं





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