रातें इतनी ड़री हुई है, नींदें सबकी उड़ी हुई हैं
उजियारे से छाई काली यों, आंखें सबकी चुंधि हुई हैं
रुतबा शौहरत चमड़ी दमड़ी, बाज़ारों की होड़ लगी है
बेचने वाले भी बिकते हैं, बोली यूं पुरजोर लगी है
देख बुढ़ापा न सीखे जवानी, ख्वाइशोँ के दलदल में धसी हुई है
बियाबान परिवार हो रहे, प्रेम प्यार के अभाव हो रहे
सब पर राजयोग यूँ छाया, बच्चों पर दासों के प्रभाव हो रहे
यूँ आज़ादी मनाये जननी जनक सब, संस्कारों की छलनी हुई है
झूठ प्रथा लालची है काबिल, अवसरवादी चाल हुई है
प्रेम बंट रहा गलियारों में, सबमें बाँट बटोर हुई है
छोटी रहे मंजिलें बड़ी है, अंतर पर धूल जमी हुई है
शिक्षा पैसा, शिक्षा व्यवसाय, शिक्षा से रोज़ी चली हुई है
मल मल दुनिया देखे अचरज, लक्षी सरस्वती यूँ मिली हुई है
दोनों की छाया यूँ काली, मानवता कही पर धसी हुई है
भ्रम एक देखा नया अनोखा, कल में जी के, कल के लिए जीता
जोड़े हर दम उस घर की खातिर, वों घर जो वह कभी न पिरोता
बीज संजोता, पौधे संजोता, धरती मलवे में धसी हुई है
विचार बिक रहे बाज़ारों में, कलमों की न पहचान हो रही
पल पल बनती बिकती मर्यादा, राज़, राज और ताज हो रही
हवा चल रही अनजानी यह कैसी, हर रिश्ते में विश्वास की कमी हुई है
मन की चंचलता ने अब, खुद का है उदगार किया
नयनों की इस पीड़ा का, शब्दों के रूप में प्रचार किया
"ह्रदय" जला दो ज्योति अंधियारे में, नव शिशु पे आस लगी हुई है
Sunday, September 5, 2010
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