Saturday, July 24, 2010

एक ठिठुरती रात बस में

धुंध भरी रातों में, पड़ते हुए पालों में,
जब सो जाते हैं दुबक के घर में
गोद किसी की जगती है, ज़िन्दगी तो चलती है

निगाहें देख पाती नहीं, राहें नज़र आती नहीं
इक हिम्मत मंजिल की ओर बढती है, ज़िन्दगी तो चलती है

ठिठुरती हुई ज़िन्दगी, बैठती थी किसी कोने में,
तापने को तन कोई भीगते बिछौने में
चाय की भट्टी जलती है, जिन्दगी तो चलती है

केवल दौलत चलाती नहीं, सिर्फ़ ज़रूरत यह काम कराती नहीं
यह काम है किसी देव का , रातें तो यूँ जगती नहीं
"ह्रदय छोड़ सबको मंजिलों पर,
मंजिल की ओर बढती है ज़िन्दगी तो चलती है

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