हैलो ! आप कैसे हैं ?
मैंने इधर उधर देखा और फिर चलने लगा l
मुझे फिर से आवाज़ आई, "मैं आप ही से बात कर रहा हूँ l"
मुझे लगा कि कोई सफ़ेद दाढ़ी , झुकी हुई कमर और जर्जर शारीर वाला वृद्ध मुझे पुकार रहा है l
मैंने उनसे पूछा, "क्या मैं आपको जनता हूँ?"
उन्होंने उत्तर दिया, "जी हैं l पर आप शायद मुझे भूल गए है l मैं तो सभी को जानता हूँ l सब मुझे आपके इस समाज कि नींव मानते है l इस समाज का भविष्य मानते हैं l पर मैं भविष्य से ज्यादा वर्तमान हूँ, समाज की कसौटी हूँ l मैं खुद में पूर्ण समाज हूँ l
आज मै जैसा दिखता हूँ, सदैव ऐसा नहीं था l वरन मेरा स्वरुप, व्यवहार और भूमिका बड़े-बड़े खानदानों और उनके संस्कारों की पहचान थी l मुझे सभी का स्नेह, आदर और देख-रेख मिलती थी l किसी युग में स्वयं दशरथ जैसे राजा मेरे पीछे दौड़ते थे, तो इस युग में जीजाबाई जैसी माँ ने मुझे पाला-परोसा l श्री कृष्ण रूप में नन्द गाँव की तो मैं जीवन-श्वास था l वह तो मेरा क्रीड़ास्थल था l
मैं बच्चपन हूँ l
वही बच्चपन जो निर्मलता और सत्यता का पर्याय था l वह था मिट्टी का ढेर जिस पर कुम्हार सारी उम्र मेहनत करता था l मेहनत तो आज भी करता है परन्तु उसका तरीका बदल गया है l पहले वह भावपूर्ण हृदय का कलाकार था l वह हृदय से कोमल एवं डंडे की सख्ती भरे मज़बूत हाथ लिए अपने फन का माहिर था और यही उसका स्वरुप भी था l उसकी दूरदर्शिता और दिया हुआ स्वरुप मुझे हमेशा गौरवान्वित करता था l वह सुविचारों और संस्कारों से सदैव मुझे संवारता रहता था l
मगर आज का कुम्हार तो कहीं असंमंजस में फंसा रहता है l उसे मेरा स्वरुप समझ ही नहीं आ रहा है l वह मुझे राह नहीं दिखा पा रहा है l आज उसी कि दुविधा का परिणाम मैं भोग रहा हूँ l
मगर आज का कुम्हार तो कहीं असंमंजस में फंसा रहता है l उसे मेरा स्वरुप समझ ही नहीं आ रहा है l वह मुझे राह नहीं दिखा पा रहा है l आज उसी कि दुविधा का परिणाम मैं भोग रहा हूँ l
मै खेल नहीं पता हूँ l केवल किताबों में घुट कर रह गया हूँ l मैं बूढ़ा नज़र आने लगा हूँ l मेरी स्फूर्ति ख़त्म हो रही है l मुझे टी.वी. हो गया है l मैं अत्यधिक कम्प्यूटर के रोग से ग्रस्त हूँ l मुझे दमा भी होने लगा है क्योंकि स्वच्छ एवं निर्मल सांस तो मिलनी बंद होती जा रही है l सारे वातावरण में आडम्बर, दिखावे और अंधी प्रतिस्प्रधा का कैंसर हुआ है और मुझे रिश्तों और विश्वास की दवा भी नहीं मिल रही है l
परन्तु इस बदलते हुए माहौल ने मुझे किफायती बना दिया है l पहले मैं बहुत नटखट था l शैतानियाँ तो मेरी परिभाषा थी l अब मैं समझदार हो गया हूँ l मुझे पैसे की समझ हो गयी है l मतलबपरस्ती, अपना पराया इत्यादि मेरे शबदकोश की शान बनने लगे है l इनसे मेरा केवल परिचय ही नहीं हुआ बल्कि अब तो मेरा अन्तरंग सम्बन्ध होने लगा है l अब मैं कोरा सामाजिक हो गया हूँ l
पर मैं तो मैं रहा ही नहीं ना l
मैं कोट-पैंट मैं बहुत फ़ब्ता हूँ l अब मुझे टाई बांधनी भी आती है l मेरे ब्वाय और गर्ल फ्रैंड भी हैं l अब मुझे नशे का स्वाद भी पता है l मुझे बाज़ार की चींजे बहुत अच्छी लगती हैं l मैं अपने साथियों के साथ जन्मदिन रेस्टोरेंट में मनाता हूँ और मुझे बिल व टिप देने मैं बड़ा मज़ा आता है l
लेकिन मैं खुद को कतई भी ढूंढ़ नहीं पा रहा हूँ l मैं खुद ही पहचान नहीं पा रहा हूँ l कभी-कभार गिल्ली-डंडे, कंचे, छुप्पन-छुपाई जैसे खेलों को तरस जाता हूँ l मेरे त्यौहार बदल गए हैं l मेरे खेल और उनके तरीके बदल गए हैं l मेरे स्वाद अब पहले जैसे रहे ही नहीं l मैं स्वस्थ दिख कर भी बीमार रहने लगा हूँ l
मैं आपको अपनी स्थिति से इसलिए अवगत कराने आया हूँ क्योंकि आपने मुझे पहले देखा हैं l आप मेरी सही पहचान जानते हैं l आपकी यादों में आज भी मेरा अनुपम स्थान हैं l मैं फिर से स्वस्थ जीवन चाहता हूँ
निराश-हताश सा मैं जंगल में भी गया था, वहां मेरे भाई जानवरों में अभी भी अपना पुराना स्वरुप कायम रखे हुए हैं l भगवान् द्वारा मनुष्य जन्म जो मुझे वरदान सा लगा था, वह इतनी जल्दी अभिशाप बन जायेगा मुझे ऐसी आशा नहीं थी l मैं आपसे अपने जीवन की रक्षा के लिए मदद मांगने आया हूँ l
क्या आप मेरी मदद करेंगे ?
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