Thursday, August 12, 2010

मथ दे माहि

मथ दे माहि अंतर तक मोहे , तेरा मथया खाली ना जाए
कितने हो गए पीर पैगम्बर, कितने महलों में बसाए

कुछ तो जल गए ज्ञान की ज्योति, कुछ कर्म की भट्टी तपाए
कुछ तो नाचे तेरी मस्ती में, कुछ की हस्ती पे लोग नचाए

कुछ तप तप हो गए
सूर्य गगन का, कुछ बूंदों से बादल बनाये
धरती पाए दोनों से जीवन, दोनों से हरी हो जाए

मथ दे `ह्रदय' यूँ अंतर तक माहि, कोई व्यथा छुपी रह जाए
भर दे कृष्ण कृपा से झोली , मन विषयों से खाली हो जाए





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